Saturday, May 18, 2019

हस्तरेखाएँ

बस अपनी रफ्तार से चल रही थी। मैं अपनी पसंदीदा खिड़की वाली सीट पर बैठा , अपनी गुजरी हुई उम्र पर जैसे खिड़की से ही सरसरी निगाह से ताकने लगा था। उम्र के 50 वें पड़ाव पर 30 - 32 साल बाद अपने गांव आना अन्य किसी के लिए शायद सपना पूरा होने जैसा हो पर मुझ जैसे रिटायर्ड लिपिक जिसने नीरस तरीके से पढ़ाई के 20 वर्ष और नौकरी के 30 वर्ष एक अच्छी मशीन बनकर बिताए, अपनी पत्नी की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद उम्र से पहले रिटायरमेंट लिया और आए पैसों से बड़ी बेटी की शादी की । छोटे बेटे को पूर्ण शिक्षित बनाकर शिक्षित बेरोजगार की श्रेणी में ले आया हो, ऐसे व्यक्ति को सपने व सपनों के पूरा होने की बात ऐसी ही लगती है जैसे मरुस्थली व्यक्ति को  झरने की बातें। आज, आध्यात्मिक दृष्टि से देख पाने के कारण आश्चर्य और ग्लानि होती है कि कैसे कोई व्यक्ति अपने मानव जीवन को एक दफ्तर, कुर्सी , पद, और तनख्वाह में गंवा सकता है ?
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खैर,  मैं अपने गांव आया था एक पुराने मित्र के बुलावे पर। गांव अब उपनगर हो गया था । मेरे मित्र विष्णु प्रसाद ने मुझे भाव भरा पत्र भेजा और मात्र मिलने बुलाया था । उसके द्वारा ऐसा पत्र भेजे जाने से मुझे आश्चर्य हुआ था। गांव की स्कूल में पहली से बारहवीं तक हम साथ पढ़े थे । वह धनी या यूं कहें उस समय बहुत धनी परिवार से था। पढ़ने में ढीला पर पिताजी के पैसों में उसे अपना भविष्य उज्ज्वल नजर आता था और इस बात में वह सही भी था। वह एक ऐसे वातावरण में पाला गया था जहां एक कच्ची उम्र तक लगता है कि पैसा ही अपना होता है, एक उम्र के बाद लगने लगता है कि अपना पैसा ही अपना होता है और एक पक्की उम्र तक आते-आते एहसास हो जाता है कि अपना पैसा भी अपना नहीं होता।

मुझे याद है वह कक्षा जब मेरे हाथ में पेन पेंसिल होता था और वह घर से लाए हुए सिक्कों से खेलता था । बाद में उसने पिता के पैसों से व्यवसाय किया। आज उसकी उम्र कथित ऐशो आराम में कटी पर भीतर का एक खालीपन उसे आईने में देखने  पर धिक्कारता है । पारिवारिक सुख और जुड़ाव की कीमत चुकाई थी उसने अपने आलिशान बंगले और बड़ी गाडी के लिए। पर अब उसके बेटे विदेश में हैं।  उनके पास अपने माँ बाप की खैर खबर का समय नहीं है इसलिए उसके बेटों ने उसे वृद्धाश्रम का निवासी बनाने की तैयारियां कर ली है। किसी ने सही कहा है, "रास्ते पर चले वक़्त गति से ज्यादा दिशा महत्वपूर्ण होती है। " हम दोनों को अपने जीवन के इस पड़ाव पर जाकर अहसास हुआ है कि हमारे साथ कुछ गलत नहीं हुआ पर हमने अपने साथ हुई गलत चीज़ों की तैयारी खुद ने ही करी थी।  संसार में अधिकतर लोग दायीं तरफ देखते हुए बायीं तरफ चलते हैं और सोचते हैं कि  वे दायीं तरफ वाली मंजिल पर पहुंचेंगे।

मैंने मिलकर उसके दुख को कम किया या ज्यादा पता नहीं । एक दुखी आदमी का दूसरे दुखी आदमी से मिलना युद्ध के दो घायल सैनिकों की तरह है जो एक दूसरे के घावों को देखकर अपने घावों से तुलना मात्र कर सकते हैं ।

भोजन के बाद हम लोग घूमने के लिए निकल आए । गांव के पास से एक हाईवे निकला था वहां एक मिडवे होटल थी। विष्णु ने बताया, "यह होटल अपने जगन्नाथ की है, याद है जग्गू..!?
जगन्नाथ नाम सुनते ही एक अजनबी का व्यक्तित्व उभरा पर जग्गू सुनने पर उसमें पहचान के अंश उभरने लगे।  मैं अभी तक पूरा याद नहीं कर पाया था।  मुझे अनिश्चय की स्थिति में देख विष्णु ने सहायता की। एक स्पष्ट तस्वीर मेरी आंखों के सामने आ गई। जग्गू पांचवी कक्षा तक हमारे साथ हमारे पास वाली जगह पर बैठकर पढ़ा। पिता व परिवार की स्थिति ना होने से पढ़ाई छोड़नी पड़ी। अपने पिता की तरह भी पानी पतासे का ठेला लगाने लगा।  उसने एक गजब का निर्णय लिया। शर्म को एक किनारे पर रखकर उसने हमारे ही स्कूल के बाहर ठेला लगा दिया। रोज आधी छुट्टी में हम दोनों मित्र भी उसके पास खड़े हो जाते। अक्सर हम पतासे पैसे खाते। कभी वह पैसे लेता, कभी ना लेता। पर रोज एक बात नियमितता से कहता , बड़े उत्साह से भर कर बोलता, "देखो यह सब पानी पतासे मैंने खुद ने बनाए हैं। "  यह चीज हमें अजीब लगती कि भला यह बात कहने से क्या मतलब है।?  रोज जब भी हम खाते, मुझे अच्छी तरह से याद है, मेरी अंगुलियां पानी पतासे और पैसों का हिसाब गति पूर्वक करती रहती। पर विष्णु अधिकतर मेरे हाथों को रोककर अपने हाथ जेब में डालता और पैसे दे देता। धनी मानसिकता वाली बनिया बुद्धि बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था तक कम ही आ पाती है। 
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आज मेरी आंखें जग्गू के पानी पतासे के ठेले से एकदम हटकर एक चमचमाती हुई मिडवे होटल को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। मन कह रहा था कि जरूर उसने दो नंबर से पैसे कमा कर यह सब किया होगा पर  विष्णु उसकी कहानी शुरू कर चुका था।  पानी पतासे के ठेले पर चार पांच पांच साल काम कर जगन्नाथ में एक होटल में कचोरी आलू बड़ा आदि बनाना सीखा।  वहां व्यवहार अच्छा देखकर एक रेलवे कर्मचारी ने उसे रेलवे कैंटीन व पैंट्री कार में नौकरी दे दी। रेलवे में उसने देश भर का भ्रमण किया, कई व्यंजन बनाने सीखे। कुछ धन जोड़ कर वापस गांव आया तो पास के शहर में उसने नए नए व्यंजनों की होटल लगाई। गांव और शहर का एकीकरण हुआ तब तक उसमें अपने पांव अच्छी तरह से जमा लिए थे। इसी बीच शादी हुई, बच्चे हुए। अब वो दो-तीन होटलें चलाता है। जिसमें से एक गांव से निकले हाईवे के ऊपर है ,बड़ा बेटा उसी काम को आगे बढ़ा रहा है। उसने होटल मैनेजमेंट का कोई कोर्स किया है। उसकी भी शादी ,बच्चा हो चुके हैं। छोटा बेटा अभी पढ़ रहा है। कहानी खत्म होते-होते हम उस होटल के अंदर पहुंच चुके थे। बड़ा बेटा वहां बैठा था। विष्णु ने परिचय करवाया। उसने हमारे पाँव छुए। संघर्ष करने वालों की संस्कारी संतानें उनका जन्म भर का असली फल होती है। हमारे लिए चाय मंगवा कर वह परिवार के बारे में बताने लगा। वो अपने पिता की मेहनती दिनचर्या को जग्गू गांव में ही रहता है। अभी तीर्थ करने गया हुआ है। 

तभी उसका 8 वर्ष का बेटा यानी जग्गू का पोता अंदर से निकल कर आया।  उसने अपने पिता के कहने पर दादाजी के दोस्तों का आदर किया पर वह कोई चीज बताने को बहुत उतावला था। अपने पापा के कान में कुछ बोला। हाथ में कोई चीज देकर, मुट्ठी बंद कर हंसता हुआ भाग गया। जग्गू के पुत्र ने हँसते हुए हमें बताया कि बेटे को चित्रकला में रुचि है ,वह अभी बैठे-बैठे बैठे-बैठे चित्र बना रहा था। अभी कागज दिखाने के लिए लाया है। कागज को हम सब वात्सल्य भाव भाव हम सब वात्सल्य भाव से देखने लगे।
एक साधारण सा हाथ बना हुआ था, जिसमें बच्चे ने हथेली कागज पर रखकर के किनारों पर पेंसिल घुमा दी दी थी और अंदर से इच्छा से लकीरे खींच दी थी। अपने चित्रकार बेटे का चित्र वो हमें गर्व से बता रहा था। मैंने पूछा कि कान में क्या कहा ? उत्तर मिला, उसने कहा "यह मैंने खुद ने बनाया है। "
मुझे 40 साल पुराने जग्गू के पानी पतासे याद आ गए। वाकई हस्तरेखाएँ बनाने से बनती हैं। 

Monday, May 6, 2019

गाँव- बसना और बचना

"नदी किनारे बसा गांव।" 
इन चार शब्दों से जो सुंदर छवि बन कर आती है उस छवि से हमारा सांगानेर गाँव साल दर साल दूर हो रहा है। हालांकि ये स्थिति भारत के कई गाँवों की है कि वो अपनी 'गाँवियत ' खोते जा रहे हैं।  जैसे हमारे गाँव में पनघट का कुंआ है पर वहां कोई पानी नहीं भरता , सूखा पड़ा है।  हमारे गाँव में आज भी पथवारी है पर अब कोई बाहर देश जाते वक़्त उसे नहीं पूजता। गाँव में एक पुराना किला भी है पर धार्मिक विवादों के चलते सीज है।  गाँव के लोग हैं  जो अब 'भोले गाँव वाले' नहीं रहे। और गाँव को शहर से जोड़ती एक नदी है जो 'नदी' कहलाने के लिए संघर्ष कर रही है। पर एक बात बताऊँ ... मुझे  मेरा गांव बहुत अच्छा लगता है।  इसलिए नहीं क्योंकि वो मेरा है बल्कि इसलिए कि उसमें अब भी 'गाँवियत की गुंजाइश' कायम है।  बड़े शहरों में रहने के बाद ये समझ आया कि शहरों को बसाना बहुत आसान है .. आप एक चौड़ी सड़क निकाल दीजिये , दो बड़े बैंक , चार ऊँची मंजिले और दस-बीस दुकानें बना दीजिये, आपका शहर तैयार।  पर गाँव बसाने के लिए हार्डवेयर से अधिक सॉफ्टवेयर की जरुरत होती है।  खेत, नदी, पेड़ , कुँए ,पहाड़, तालाब , सीधे - सादे लोग , भावनाओं से जुड़े स्थल ... ये सब रातों रात नहीं बनते हैं। 
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योरोपीय नींव वाली शिक्षा ने हमारे दिमाग में बिठाया है कि विकास के लिए इस गांवियत को खो देना पहली शर्त है।  विकसित क्षेत्रों में खेत, कुँए और चौपाल पर बैठे हुए लोगों की कल्पना भी हमारा दिमाग नहीं कर सकता है। 'पढ़ लिखकर बड़ी नौकरी - बिजनेस करना' स्वाभाविक लगता है पर 'पढ़ लिखकर बड़ी खेती करना' .. सुनने में अटपटा लगता है। सरकारों की योजनाओं में भी ग्रामीण मतलब गरीब होते हैं और शहरी मतलब अमीर। कहानियों में बच्चे बड़े होकर कमाने शहर जाते हैं और शहरी बूढ़ों को गाँव के अभावों की याद आती है। क्या कंडीशनिंग की गई है हमारी। 

हमें सिखाया जाता है कि शहर के बाजार दुकानों के माल के लिए गांव पर निर्भर है जबकि असलियत में गांव  के लोग अपने अस्तित्व के लिए शहर के बाजारों पर निर्भर है। मुझे याद है 2011 में जब मैं एम. ए. करके निकला था और रोजगार के लिए पहला ऑप्शन मैंने खेती का चुना था। रबी की फसल में सिजारी के साथ साझेदारी से 3 बीघा खेत में 24 बोरी गेहूं पैदा हुए जो लगभग मेहनताने के बराबर ही थे कुछ ज्यादा नहीं।  और खरीफ की फसल में मक्का के बीज जो मैंने 110 रुपये किलो में खरीदे थे वही मक्का की फसल मंडी में पौने दस रुपए किलो में बिका । हमें और सिजारी दोनों को तगड़ा नुकसान हुआ । हालांकि मुझे आज भी खेती का कोई गहरा अनुभव नहीं है पर उस 1 साल में खेती में होने वाली मेहनत और उस मेहनत के बाद होने वाले नुकसान की छाप मेरे आर्थिक मन पर पड़ी। नवाचारों के साथ फायदेमंद खेती करना आज भी एक सपना है। जब भी कोई ऐसी खबर कहीं पढ़ने को मिलती है कि अमुक व्यक्ति ने बड़ी नौकरी छोड़ कर प्रगतिशील तरीकों से खेती करके लाखों रुपए कमाए तो मैं उसे मेरे गांव में घटते हुए देखना चाहता हूं।

एक सपना गांव के किले को पर्यटन के लिए सजते हुए देखने का है, जो हिन्दू मुस्लिम तनाव के कारण बंद कर दिया गया है।  पुराने जमाने के किले में जो सैनिकों के लिए बना था, उस वक़्त उनको ये अंदाजा नहीं था कि उनकी आने वाली पीढ़ी मज़ार और माताजी के मंदिर को पास पास एक साथ स्वीकार नहीं कर पाएगी।  
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ऐसा ही एक सपना गांव किनारे बहती हुई नदी में नहाने, तैरने और नाव की सैर करने का है ।
गांव के पास में कोठारी नदी ने हमारे पूर्वजों को खूब नहलाया है पर हमने हमेशा इसकी पुलिया पर से इसे एक काले पानी के नाले  के रूप में देखा है जो प्लास्टिक की थैलियों से अटा रहता है। लगभग 9-10 साल पहले मॉर्निंग वॉक पर जाते हुए इन थैलियों को निकालने का बीड़ा उठाया था । उस वक्त हम 2-3 जने मात्र थे। सो काफी दिनों तक ये काम चलता रहा। लोगों की बिन मांगी रायें , फब्तियां मिलती थी कई दिनों तक सफाई के बाद वहां एक छोटी सी हाथ से लिखी तख्ती पर कचरा ना डालने की अपील के साथ हमारे अभियान का अंत हुआ था। समय के साथ लोगों ने  फिर से नदी का वही हाल कर दिया  ।
उस काम की सफ़लता का कोई पैमाना नहीं है। पर 10 साल बाद,  हमारे गांव के युवाओं के ग्रुप सांगानेर स्टडी सर्कल में चली एक  पर्यावरणीय चेतना से पुनः नदी की सफाई होने लगी। आज  पूरे गांव में और भीलवाड़ा शहर में भी इस काम को सराहा जा रहा है सोशल मीडिया एक बहुत बड़ा अंतर है जो 10 साल पहले नहीं था।  बाकी लोगों की बिन मांगी राय और फब्तियां लगभग वहीं है। अखबार से प्रशासन भी जागा है।  

हो सकता है गांव के कचरा डालने वाले लोग भी जाग जाएं। पर वे जागे रहें  यह  पक्का नहीं ..। और वैसे भी इतिहास गवाह है की समय-समय पर समाज  के सो जाने पर ही समाज को जगाने वाले पैदा हुए हैं। सो उनका सो जाना भी जरूरी है।
 रही हमारे ग्रुप की बात, तो हम सफ़ाई नदी की नहीं बल्कि अपने अपने मनों की कर रहे हैं। इस धारणा को अपने मन से हटा रहे हैं कि "यह सांगानेर है, यहां कुछ नहीं हो सकता" या "यह भारत है यहाँ सब चलता है। थोड़ा थोड़ा विश्वास हमारे मन में भी जगा है कि समस्याएं सुलझाई  जा सकती है।  कुछ छोटे कदमों के बढ़ जाने से भी रास्ते की दूरियां कम होने लगती हैं और हम हिवरे बाजार जैसे उदाहरण को देख कर यह भी सीखे हैं कि गांव की समस्या को सुंदरता में बदलने के लिए शहरी सरकारों की भीख की जरूरत नहीं है ।

अगर कोई ये पूछे कि क्या यह समाज सेवा है ? तो मैं कहूंगा ' नहीं।' यह मेरा निहायत ही स्वार्थी सपना है कि मैं अपनी बेटी को एक विकसित , पढ़े लिखे , खुशहाल 'गांव' में पलते-बड़े होते हुए देखूं।

Wednesday, April 24, 2019

अपने अपने बुद्ध

महात्मा बुद्ध ने कहा था "जीवन दुखमय है " तब शायद उन्होनेँ  अपने अबोध शिशु पुत्र राहुल की मुस्कान को नहीं देखा था।  उनके भ्रमण पर उन्हें मात्र जीवन के कटु सत्य की झलक देखने को मिली और विचारों व भावनाओं के असीम महासागर में गोते लगा कर उन्होंने अपने सत्य को पाया।  हम सभी अपने अपने जीवन के सत्य को इसी तरह से पाते हैं।  हमारे अनुभव, विचार, कल्पनाएं, समझ पूर्ण सत्य नहीं होते पर हमारे स्वयं के लिए वो ही हमारा ब्रहमांड बनाते हैं।


कल्पना कीजिये आप किसी दिन एक सुबह उठते हैं और नए ग्रह पर अपने आप को पाते हैं जहाँ के सब लोग बिल्कुल आप की ही तरह हैं शरीर से, मन से, आचार व्यवहार से। वहां सब आपकी नक़ल कर रहे हैं।  क्या आप वहां रह पाएंगे ?

नहीं , आप वहां नहीं रह पाएंगे।  आपको वहां की एकरूपता खाने को दौड़ेगी।  हो सकता है कि वहां अपने आप की इतनी सारी प्रतिकृति पाकर आप खुद से घृणा करने लगें। 

फिर हम क्यों पूरी दुनिया को अपनी बातें मनवाने में लगे रहते हैं? हम क्यों चाहते हैं कि सब हमारी विचारधारा के हिसाब से हो? सोचिये जब आपका बच्चा या छोटी बहन आपकी बात नहीं मानते हैं तो आपको कितना गुस्सा आता है। शिक्षा के नाम पर समाज ने आपकी कंडीशनिंग कर दी है और अब आप उस मकड़जाल से निकलने की बजाय उसे श्रेष्ठ साबित करने की नाकाम कोशिशों में अपना जीवन बिता देंगे।  क्या हमारे अनमोल मानव जीवन का यही मोल है? मेरी राय में इंसान एक शोधकर्ता है।  एक संवेदनशील शोधकर्ता ....।

 एक काम कीजिये , आप कुछ समय के लिए एक भिखारी बन जाइये।  लोगों से मांगिये। धन नहीं विचार मांगिये, मौलिक विचार , कई विषयों पर ऐसे विचार जो उन्हें किसी दूसरे ने न दिए हों।  और आप एक सच्चे भिखारी की तरह आशावान रहिये।  हाँ ! भिखारी सबसे आशावान होते हैं। इस शोध में आप पाएंगे कि 99.99 प्रतिशत लोगों ने अब तक केवल चंद विचारों की जुगाली मात्र की है। उनके पास मौलिकता है ही नहीं।  पर अभी आशा मत छोड़ देना  क्योंकि भिखारी के लिए आशा छोड़ने का अर्थ है भूखा सोना।  अब आप छोटे बच्चों के पास जाकर उन से प्रश्न मांगना , मौलिक प्रश्न।  और आप पाएंगे कि उनके पास हर विषय के लिए ढेरों मौलिक प्रश्न  हैं।  उनके पास सैकड़ों जिज्ञासाएं हैं।  बस उन्हीं के सहारे से ये मानव जाति विकास कर रही है। अगर समय और समाज ने इन छोटी छोटी जिज्ञासाओं को नहीं कुचला तो कुछ अनफिट वयस्क निर्मित हो जाते हैं जो कई विषयों पर अपरिपक्व प्रश्न करते हैं और ये ही अपरिपक्वतायें  पूरी मानव सभ्यता को अगले पड़ाव तक ले जाती हैं।

वैयक्तिक रूप से एक अकेले इंसान का विकास भी ऐसे ही हो सकता है।  'मौलिकता' मानव से जुडी वो एकमात्र चीज़ है जिसका बचाव किया जाना वाज़िब है।  खुद को मानवता के अलावा किसी और सांचे में फिट कर देना अप्राकृतिक है। दुनिया में खुद के क्षेत्र, जाति, धर्म, समुदाय विशेष के लिए दूसरों से लड़ने वालों और इन क्षेत्र, जाति, धर्म, समुदाय विशेष के भीतर मानवता के लिए लड़ने वालों में से आप किस तरफ होना चाहेंगे? बाद वाली तरफ में आप  जीवन की ओऱ जा रहे होंगे। 

स्वयं को खोजना, दूसरों को चाहना और अपने समेत सबकी सेवा करना , ये तीनों काम इंसान को क्रमशः सफल, सुखी और सार्थक बनाते हैं।

और हाँ.... ! अगर आप ये नहीं करते हैं तो आपका जीवन वाकई तब तक दुःखमय रहेगा जब तक कोई अन्य बुद्ध पैदा नहीं हो जाते।