महात्मा बुद्ध ने कहा था "जीवन दुखमय है " तब शायद उन्होनेँ अपने अबोध शिशु पुत्र राहुल की मुस्कान को नहीं देखा था। उनके भ्रमण पर उन्हें मात्र जीवन के कटु सत्य की झलक देखने को मिली और विचारों व भावनाओं के असीम महासागर में गोते लगा कर उन्होंने अपने सत्य को पाया। हम सभी अपने अपने जीवन के सत्य को इसी तरह से पाते हैं। हमारे अनुभव, विचार, कल्पनाएं, समझ पूर्ण सत्य नहीं होते पर हमारे स्वयं के लिए वो ही हमारा ब्रहमांड बनाते हैं।
कल्पना कीजिये आप किसी दिन एक सुबह उठते हैं और नए ग्रह पर अपने आप को पाते हैं जहाँ के सब लोग बिल्कुल आप की ही तरह हैं शरीर से, मन से, आचार व्यवहार से। वहां सब आपकी नक़ल कर रहे हैं। क्या आप वहां रह पाएंगे ?
नहीं , आप वहां नहीं रह पाएंगे। आपको वहां की एकरूपता खाने को दौड़ेगी। हो सकता है कि वहां अपने आप की इतनी सारी प्रतिकृति पाकर आप खुद से घृणा करने लगें।
फिर हम क्यों पूरी दुनिया को अपनी बातें मनवाने में लगे रहते हैं? हम क्यों चाहते हैं कि सब हमारी विचारधारा के हिसाब से हो? सोचिये जब आपका बच्चा या छोटी बहन आपकी बात नहीं मानते हैं तो आपको कितना गुस्सा आता है। शिक्षा के नाम पर समाज ने आपकी कंडीशनिंग कर दी है और अब आप उस मकड़जाल से निकलने की बजाय उसे श्रेष्ठ साबित करने की नाकाम कोशिशों में अपना जीवन बिता देंगे। क्या हमारे अनमोल मानव जीवन का यही मोल है? मेरी राय में इंसान एक शोधकर्ता है। एक संवेदनशील शोधकर्ता ....।
एक काम कीजिये , आप कुछ समय के लिए एक भिखारी बन जाइये। लोगों से मांगिये। धन नहीं विचार मांगिये, मौलिक विचार , कई विषयों पर ऐसे विचार जो उन्हें किसी दूसरे ने न दिए हों। और आप एक सच्चे भिखारी की तरह आशावान रहिये। हाँ ! भिखारी सबसे आशावान होते हैं। इस शोध में आप पाएंगे कि 99.99 प्रतिशत लोगों ने अब तक केवल चंद विचारों की जुगाली मात्र की है। उनके पास मौलिकता है ही नहीं। पर अभी आशा मत छोड़ देना क्योंकि भिखारी के लिए आशा छोड़ने का अर्थ है भूखा सोना। अब आप छोटे बच्चों के पास जाकर उन से प्रश्न मांगना , मौलिक प्रश्न। और आप पाएंगे कि उनके पास हर विषय के लिए ढेरों मौलिक प्रश्न हैं। उनके पास सैकड़ों जिज्ञासाएं हैं। बस उन्हीं के सहारे से ये मानव जाति विकास कर रही है। अगर समय और समाज ने इन छोटी छोटी जिज्ञासाओं को नहीं कुचला तो कुछ अनफिट वयस्क निर्मित हो जाते हैं जो कई विषयों पर अपरिपक्व प्रश्न करते हैं और ये ही अपरिपक्वतायें पूरी मानव सभ्यता को अगले पड़ाव तक ले जाती हैं।
वैयक्तिक रूप से एक अकेले इंसान का विकास भी ऐसे ही हो सकता है। 'मौलिकता' मानव से जुडी वो एकमात्र चीज़ है जिसका बचाव किया जाना वाज़िब है। खुद को मानवता के अलावा किसी और सांचे में फिट कर देना अप्राकृतिक है। दुनिया में खुद के क्षेत्र, जाति, धर्म, समुदाय विशेष के लिए दूसरों से लड़ने वालों और इन क्षेत्र, जाति, धर्म, समुदाय विशेष के भीतर मानवता के लिए लड़ने वालों में से आप किस तरफ होना चाहेंगे? बाद वाली तरफ में आप जीवन की ओऱ जा रहे होंगे।
स्वयं को खोजना, दूसरों को चाहना और अपने समेत सबकी सेवा करना , ये तीनों काम इंसान को क्रमशः सफल, सुखी और सार्थक बनाते हैं।
और हाँ.... ! अगर आप ये नहीं करते हैं तो आपका जीवन वाकई तब तक दुःखमय रहेगा जब तक कोई अन्य बुद्ध पैदा नहीं हो जाते।
कल्पना कीजिये आप किसी दिन एक सुबह उठते हैं और नए ग्रह पर अपने आप को पाते हैं जहाँ के सब लोग बिल्कुल आप की ही तरह हैं शरीर से, मन से, आचार व्यवहार से। वहां सब आपकी नक़ल कर रहे हैं। क्या आप वहां रह पाएंगे ?
नहीं , आप वहां नहीं रह पाएंगे। आपको वहां की एकरूपता खाने को दौड़ेगी। हो सकता है कि वहां अपने आप की इतनी सारी प्रतिकृति पाकर आप खुद से घृणा करने लगें।
फिर हम क्यों पूरी दुनिया को अपनी बातें मनवाने में लगे रहते हैं? हम क्यों चाहते हैं कि सब हमारी विचारधारा के हिसाब से हो? सोचिये जब आपका बच्चा या छोटी बहन आपकी बात नहीं मानते हैं तो आपको कितना गुस्सा आता है। शिक्षा के नाम पर समाज ने आपकी कंडीशनिंग कर दी है और अब आप उस मकड़जाल से निकलने की बजाय उसे श्रेष्ठ साबित करने की नाकाम कोशिशों में अपना जीवन बिता देंगे। क्या हमारे अनमोल मानव जीवन का यही मोल है? मेरी राय में इंसान एक शोधकर्ता है। एक संवेदनशील शोधकर्ता ....।
एक काम कीजिये , आप कुछ समय के लिए एक भिखारी बन जाइये। लोगों से मांगिये। धन नहीं विचार मांगिये, मौलिक विचार , कई विषयों पर ऐसे विचार जो उन्हें किसी दूसरे ने न दिए हों। और आप एक सच्चे भिखारी की तरह आशावान रहिये। हाँ ! भिखारी सबसे आशावान होते हैं। इस शोध में आप पाएंगे कि 99.99 प्रतिशत लोगों ने अब तक केवल चंद विचारों की जुगाली मात्र की है। उनके पास मौलिकता है ही नहीं। पर अभी आशा मत छोड़ देना क्योंकि भिखारी के लिए आशा छोड़ने का अर्थ है भूखा सोना। अब आप छोटे बच्चों के पास जाकर उन से प्रश्न मांगना , मौलिक प्रश्न। और आप पाएंगे कि उनके पास हर विषय के लिए ढेरों मौलिक प्रश्न हैं। उनके पास सैकड़ों जिज्ञासाएं हैं। बस उन्हीं के सहारे से ये मानव जाति विकास कर रही है। अगर समय और समाज ने इन छोटी छोटी जिज्ञासाओं को नहीं कुचला तो कुछ अनफिट वयस्क निर्मित हो जाते हैं जो कई विषयों पर अपरिपक्व प्रश्न करते हैं और ये ही अपरिपक्वतायें पूरी मानव सभ्यता को अगले पड़ाव तक ले जाती हैं।
वैयक्तिक रूप से एक अकेले इंसान का विकास भी ऐसे ही हो सकता है। 'मौलिकता' मानव से जुडी वो एकमात्र चीज़ है जिसका बचाव किया जाना वाज़िब है। खुद को मानवता के अलावा किसी और सांचे में फिट कर देना अप्राकृतिक है। दुनिया में खुद के क्षेत्र, जाति, धर्म, समुदाय विशेष के लिए दूसरों से लड़ने वालों और इन क्षेत्र, जाति, धर्म, समुदाय विशेष के भीतर मानवता के लिए लड़ने वालों में से आप किस तरफ होना चाहेंगे? बाद वाली तरफ में आप जीवन की ओऱ जा रहे होंगे।
स्वयं को खोजना, दूसरों को चाहना और अपने समेत सबकी सेवा करना , ये तीनों काम इंसान को क्रमशः सफल, सुखी और सार्थक बनाते हैं।
और हाँ.... ! अगर आप ये नहीं करते हैं तो आपका जीवन वाकई तब तक दुःखमय रहेगा जब तक कोई अन्य बुद्ध पैदा नहीं हो जाते।