बस अपनी रफ्तार से चल रही थी। मैं अपनी पसंदीदा खिड़की वाली सीट पर बैठा , अपनी गुजरी हुई उम्र पर जैसे खिड़की से ही सरसरी निगाह से ताकने लगा था। उम्र के 50 वें पड़ाव पर 30 - 32 साल बाद अपने गांव आना अन्य किसी के लिए शायद सपना पूरा होने जैसा हो पर मुझ जैसे रिटायर्ड लिपिक जिसने नीरस तरीके से पढ़ाई के 20 वर्ष और नौकरी के 30 वर्ष एक अच्छी मशीन बनकर बिताए, अपनी पत्नी की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद उम्र से पहले रिटायरमेंट लिया और आए पैसों से बड़ी बेटी की शादी की । छोटे बेटे को पूर्ण शिक्षित बनाकर शिक्षित बेरोजगार की श्रेणी में ले आया हो, ऐसे व्यक्ति को सपने व सपनों के पूरा होने की बात ऐसी ही लगती है जैसे मरुस्थली व्यक्ति को झरने की बातें। आज, आध्यात्मिक दृष्टि से देख पाने के कारण आश्चर्य और ग्लानि होती है कि कैसे कोई व्यक्ति अपने मानव जीवन को एक दफ्तर, कुर्सी , पद, और तनख्वाह में गंवा सकता है ?
खैर, मैं अपने गांव आया था एक पुराने मित्र के बुलावे पर। गांव अब उपनगर हो गया था । मेरे मित्र विष्णु प्रसाद ने मुझे भाव भरा पत्र भेजा और मात्र मिलने बुलाया था । उसके द्वारा ऐसा पत्र भेजे जाने से मुझे आश्चर्य हुआ था। गांव की स्कूल में पहली से बारहवीं तक हम साथ पढ़े थे । वह धनी या यूं कहें उस समय बहुत धनी परिवार से था। पढ़ने में ढीला पर पिताजी के पैसों में उसे अपना भविष्य उज्ज्वल नजर आता था और इस बात में वह सही भी था। वह एक ऐसे वातावरण में पाला गया था जहां एक कच्ची उम्र तक लगता है कि पैसा ही अपना होता है, एक उम्र के बाद लगने लगता है कि अपना पैसा ही अपना होता है और एक पक्की उम्र तक आते-आते एहसास हो जाता है कि अपना पैसा भी अपना नहीं होता।
मुझे याद है वह कक्षा जब मेरे हाथ में पेन पेंसिल होता था और वह घर से लाए हुए सिक्कों से खेलता था । बाद में उसने पिता के पैसों से व्यवसाय किया। आज उसकी उम्र कथित ऐशो आराम में कटी पर भीतर का एक खालीपन उसे आईने में देखने पर धिक्कारता है । पारिवारिक सुख और जुड़ाव की कीमत चुकाई थी उसने अपने आलिशान बंगले और बड़ी गाडी के लिए। पर अब उसके बेटे विदेश में हैं। उनके पास अपने माँ बाप की खैर खबर का समय नहीं है इसलिए उसके बेटों ने उसे वृद्धाश्रम का निवासी बनाने की तैयारियां कर ली है। किसी ने सही कहा है, "रास्ते पर चले वक़्त गति से ज्यादा दिशा महत्वपूर्ण होती है। " हम दोनों को अपने जीवन के इस पड़ाव पर जाकर अहसास हुआ है कि हमारे साथ कुछ गलत नहीं हुआ पर हमने अपने साथ हुई गलत चीज़ों की तैयारी खुद ने ही करी थी। संसार में अधिकतर लोग दायीं तरफ देखते हुए बायीं तरफ चलते हैं और सोचते हैं कि वे दायीं तरफ वाली मंजिल पर पहुंचेंगे।
मैंने मिलकर उसके दुख को कम किया या ज्यादा पता नहीं । एक दुखी आदमी का दूसरे दुखी आदमी से मिलना युद्ध के दो घायल सैनिकों की तरह है जो एक दूसरे के घावों को देखकर अपने घावों से तुलना मात्र कर सकते हैं ।
भोजन के बाद हम लोग घूमने के लिए निकल आए । गांव के पास से एक हाईवे निकला था वहां एक मिडवे होटल थी। विष्णु ने बताया, "यह होटल अपने जगन्नाथ की है, याद है जग्गू..!?
आज मेरी आंखें जग्गू के पानी पतासे के ठेले से एकदम हटकर एक चमचमाती हुई मिडवे होटल को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। मन कह रहा था कि जरूर उसने दो नंबर से पैसे कमा कर यह सब किया होगा पर विष्णु उसकी कहानी शुरू कर चुका था। पानी पतासे के ठेले पर चार पांच पांच साल काम कर जगन्नाथ में एक होटल में कचोरी आलू बड़ा आदि बनाना सीखा। वहां व्यवहार अच्छा देखकर एक रेलवे कर्मचारी ने उसे रेलवे कैंटीन व पैंट्री कार में नौकरी दे दी। रेलवे में उसने देश भर का भ्रमण किया, कई व्यंजन बनाने सीखे। कुछ धन जोड़ कर वापस गांव आया तो पास के शहर में उसने नए नए व्यंजनों की होटल लगाई। गांव और शहर का एकीकरण हुआ तब तक उसमें अपने पांव अच्छी तरह से जमा लिए थे। इसी बीच शादी हुई, बच्चे हुए। अब वो दो-तीन होटलें चलाता है। जिसमें से एक गांव से निकले हाईवे के ऊपर है ,बड़ा बेटा उसी काम को आगे बढ़ा रहा है। उसने होटल मैनेजमेंट का कोई कोर्स किया है। उसकी भी शादी ,बच्चा हो चुके हैं। छोटा बेटा अभी पढ़ रहा है। कहानी खत्म होते-होते हम उस होटल के अंदर पहुंच चुके थे। बड़ा बेटा वहां बैठा था। विष्णु ने परिचय करवाया। उसने हमारे पाँव छुए। संघर्ष करने वालों की संस्कारी संतानें उनका जन्म भर का असली फल होती है। हमारे लिए चाय मंगवा कर वह परिवार के बारे में बताने लगा। वो अपने पिता की मेहनती दिनचर्या को जग्गू गांव में ही रहता है। अभी तीर्थ करने गया हुआ है।
तभी उसका 8 वर्ष का बेटा यानी जग्गू का पोता अंदर से निकल कर आया। उसने अपने पिता के कहने पर दादाजी के दोस्तों का आदर किया पर वह कोई चीज बताने को बहुत उतावला था। अपने पापा के कान में कुछ बोला। हाथ में कोई चीज देकर, मुट्ठी बंद कर हंसता हुआ भाग गया। जग्गू के पुत्र ने हँसते हुए हमें बताया कि बेटे को चित्रकला में रुचि है ,वह अभी बैठे-बैठे बैठे-बैठे चित्र बना रहा था। अभी कागज दिखाने के लिए लाया है। कागज को हम सब वात्सल्य भाव भाव हम सब वात्सल्य भाव से देखने लगे।
एक साधारण सा हाथ बना हुआ था, जिसमें बच्चे ने हथेली कागज पर रखकर के किनारों पर पेंसिल घुमा दी दी थी और अंदर से इच्छा से लकीरे खींच दी थी। अपने चित्रकार बेटे का चित्र वो हमें गर्व से बता रहा था। मैंने पूछा कि कान में क्या कहा ? उत्तर मिला, उसने कहा "यह मैंने खुद ने बनाया है। "
मुझे 40 साल पुराने जग्गू के पानी पतासे याद आ गए। वाकई हस्तरेखाएँ बनाने से बनती हैं।
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