Monday, May 6, 2019

गाँव- बसना और बचना

"नदी किनारे बसा गांव।" 
इन चार शब्दों से जो सुंदर छवि बन कर आती है उस छवि से हमारा सांगानेर गाँव साल दर साल दूर हो रहा है। हालांकि ये स्थिति भारत के कई गाँवों की है कि वो अपनी 'गाँवियत ' खोते जा रहे हैं।  जैसे हमारे गाँव में पनघट का कुंआ है पर वहां कोई पानी नहीं भरता , सूखा पड़ा है।  हमारे गाँव में आज भी पथवारी है पर अब कोई बाहर देश जाते वक़्त उसे नहीं पूजता। गाँव में एक पुराना किला भी है पर धार्मिक विवादों के चलते सीज है।  गाँव के लोग हैं  जो अब 'भोले गाँव वाले' नहीं रहे। और गाँव को शहर से जोड़ती एक नदी है जो 'नदी' कहलाने के लिए संघर्ष कर रही है। पर एक बात बताऊँ ... मुझे  मेरा गांव बहुत अच्छा लगता है।  इसलिए नहीं क्योंकि वो मेरा है बल्कि इसलिए कि उसमें अब भी 'गाँवियत की गुंजाइश' कायम है।  बड़े शहरों में रहने के बाद ये समझ आया कि शहरों को बसाना बहुत आसान है .. आप एक चौड़ी सड़क निकाल दीजिये , दो बड़े बैंक , चार ऊँची मंजिले और दस-बीस दुकानें बना दीजिये, आपका शहर तैयार।  पर गाँव बसाने के लिए हार्डवेयर से अधिक सॉफ्टवेयर की जरुरत होती है।  खेत, नदी, पेड़ , कुँए ,पहाड़, तालाब , सीधे - सादे लोग , भावनाओं से जुड़े स्थल ... ये सब रातों रात नहीं बनते हैं। 
CITY AND VILLAGE के लिए इमेज परिणाम
योरोपीय नींव वाली शिक्षा ने हमारे दिमाग में बिठाया है कि विकास के लिए इस गांवियत को खो देना पहली शर्त है।  विकसित क्षेत्रों में खेत, कुँए और चौपाल पर बैठे हुए लोगों की कल्पना भी हमारा दिमाग नहीं कर सकता है। 'पढ़ लिखकर बड़ी नौकरी - बिजनेस करना' स्वाभाविक लगता है पर 'पढ़ लिखकर बड़ी खेती करना' .. सुनने में अटपटा लगता है। सरकारों की योजनाओं में भी ग्रामीण मतलब गरीब होते हैं और शहरी मतलब अमीर। कहानियों में बच्चे बड़े होकर कमाने शहर जाते हैं और शहरी बूढ़ों को गाँव के अभावों की याद आती है। क्या कंडीशनिंग की गई है हमारी। 

हमें सिखाया जाता है कि शहर के बाजार दुकानों के माल के लिए गांव पर निर्भर है जबकि असलियत में गांव  के लोग अपने अस्तित्व के लिए शहर के बाजारों पर निर्भर है। मुझे याद है 2011 में जब मैं एम. ए. करके निकला था और रोजगार के लिए पहला ऑप्शन मैंने खेती का चुना था। रबी की फसल में सिजारी के साथ साझेदारी से 3 बीघा खेत में 24 बोरी गेहूं पैदा हुए जो लगभग मेहनताने के बराबर ही थे कुछ ज्यादा नहीं।  और खरीफ की फसल में मक्का के बीज जो मैंने 110 रुपये किलो में खरीदे थे वही मक्का की फसल मंडी में पौने दस रुपए किलो में बिका । हमें और सिजारी दोनों को तगड़ा नुकसान हुआ । हालांकि मुझे आज भी खेती का कोई गहरा अनुभव नहीं है पर उस 1 साल में खेती में होने वाली मेहनत और उस मेहनत के बाद होने वाले नुकसान की छाप मेरे आर्थिक मन पर पड़ी। नवाचारों के साथ फायदेमंद खेती करना आज भी एक सपना है। जब भी कोई ऐसी खबर कहीं पढ़ने को मिलती है कि अमुक व्यक्ति ने बड़ी नौकरी छोड़ कर प्रगतिशील तरीकों से खेती करके लाखों रुपए कमाए तो मैं उसे मेरे गांव में घटते हुए देखना चाहता हूं।

एक सपना गांव के किले को पर्यटन के लिए सजते हुए देखने का है, जो हिन्दू मुस्लिम तनाव के कारण बंद कर दिया गया है।  पुराने जमाने के किले में जो सैनिकों के लिए बना था, उस वक़्त उनको ये अंदाजा नहीं था कि उनकी आने वाली पीढ़ी मज़ार और माताजी के मंदिर को पास पास एक साथ स्वीकार नहीं कर पाएगी।  
Image may contain: sky, outdoor and nature

ऐसा ही एक सपना गांव किनारे बहती हुई नदी में नहाने, तैरने और नाव की सैर करने का है ।
गांव के पास में कोठारी नदी ने हमारे पूर्वजों को खूब नहलाया है पर हमने हमेशा इसकी पुलिया पर से इसे एक काले पानी के नाले  के रूप में देखा है जो प्लास्टिक की थैलियों से अटा रहता है। लगभग 9-10 साल पहले मॉर्निंग वॉक पर जाते हुए इन थैलियों को निकालने का बीड़ा उठाया था । उस वक्त हम 2-3 जने मात्र थे। सो काफी दिनों तक ये काम चलता रहा। लोगों की बिन मांगी रायें , फब्तियां मिलती थी कई दिनों तक सफाई के बाद वहां एक छोटी सी हाथ से लिखी तख्ती पर कचरा ना डालने की अपील के साथ हमारे अभियान का अंत हुआ था। समय के साथ लोगों ने  फिर से नदी का वही हाल कर दिया  ।
उस काम की सफ़लता का कोई पैमाना नहीं है। पर 10 साल बाद,  हमारे गांव के युवाओं के ग्रुप सांगानेर स्टडी सर्कल में चली एक  पर्यावरणीय चेतना से पुनः नदी की सफाई होने लगी। आज  पूरे गांव में और भीलवाड़ा शहर में भी इस काम को सराहा जा रहा है सोशल मीडिया एक बहुत बड़ा अंतर है जो 10 साल पहले नहीं था।  बाकी लोगों की बिन मांगी राय और फब्तियां लगभग वहीं है। अखबार से प्रशासन भी जागा है।  

हो सकता है गांव के कचरा डालने वाले लोग भी जाग जाएं। पर वे जागे रहें  यह  पक्का नहीं ..। और वैसे भी इतिहास गवाह है की समय-समय पर समाज  के सो जाने पर ही समाज को जगाने वाले पैदा हुए हैं। सो उनका सो जाना भी जरूरी है।
 रही हमारे ग्रुप की बात, तो हम सफ़ाई नदी की नहीं बल्कि अपने अपने मनों की कर रहे हैं। इस धारणा को अपने मन से हटा रहे हैं कि "यह सांगानेर है, यहां कुछ नहीं हो सकता" या "यह भारत है यहाँ सब चलता है। थोड़ा थोड़ा विश्वास हमारे मन में भी जगा है कि समस्याएं सुलझाई  जा सकती है।  कुछ छोटे कदमों के बढ़ जाने से भी रास्ते की दूरियां कम होने लगती हैं और हम हिवरे बाजार जैसे उदाहरण को देख कर यह भी सीखे हैं कि गांव की समस्या को सुंदरता में बदलने के लिए शहरी सरकारों की भीख की जरूरत नहीं है ।

अगर कोई ये पूछे कि क्या यह समाज सेवा है ? तो मैं कहूंगा ' नहीं।' यह मेरा निहायत ही स्वार्थी सपना है कि मैं अपनी बेटी को एक विकसित , पढ़े लिखे , खुशहाल 'गांव' में पलते-बड़े होते हुए देखूं।

5 comments:

  1. Absolutely correct, it's our responsibility to save our rural belongings in order to save nature.
    Well written.

    ReplyDelete
  2. बहुत ही अच्छा काम कर रहे हो सर जी।

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छा लगा.... Save environment

    ReplyDelete
  4. शहर ने ज़िन्दगी को आपाधापी वाला बनाया है।जीने के ढाँचे को बिगाड़ा है।असल जिंदगी तो गाँव ही देता है।संवेदनाओं से जुड़ी हुई ज़िन्दगी का नवाचार शहरों से नही गाँव के रास्ते से ही होकर जाता है। नदी के प्रति आपकी संवेदनाएं ज़िंदा है बाकी शहर के लिए वो कचरा ढोने की नाव है।
    नेक काम के लिए शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  5. गांवों से जुड़ी हुई हमारी सवेंदनाओं और प्रेम का कोई पार ही नहीं है।हमारे दिलों और हमारी संस्कृति में आज भी गांव बसते हैं न कि शहर। जब मैं पांच साल का था और मेरे माता पिता गांव छोड़कर काम धंधे की तलाश में भीलवाड़ा आ गए थे। और जब 12 वर्ष की उम्र में मुझे वापस पहली बार गांव जाने का मौका मिला तो वो पल मेरे लिए किसी वतन वापसी से कम नहीं था जब मैं रात की एक बजे अपने गाँव में जीप से बाहर उतरा और अनायास ही मेरे मुहं से निकल पड़ा ....मैं आ गया हूं। जैसे मेरा गाँव एक जीता जागता इंसान हो और मैं उससे बाते कर रहा हूं। गाँवों का जिंदा रहना भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व मे लिए जरूरी है क्योंकि हमारी संस्कृति और विकास की प्रथम सीड़ी गाँव ही हैं। जॉय तुम्हें इस नेक कार्य के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं।

    ReplyDelete